Dahej Pratha ( दहेज – प्रथा )

दोस्तो आज का मेरा पोस्ट दहेज – प्रथा ( Dahej Pratha ) समाज में  दहेज  का भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है। यह दहेज – प्रथा  प्राचीन काल से चली आ रही है, पर वर्तमान काल में इसने जैसा वकृत रूप धारण कर लिया है, उसकी कल्पना भी किसी ने नही की थी। हिन्दू समाज के लिए आज यह एक अभिशाप बन गया है, जो समाज को अन्दर से खोखला करता जा रहा है। अतः इस समस्या के स्वरूप, कारणों एवं समाधान पर विचार करना नितान्त आवश्यक है।

दहेज – प्रथा का स्वरूप 

कन्या के विवाह के अवसर पर कन्या के माता – पिता वर – पक्ष के सम्मानार्थ जो दान – दक्षिण भेटस्वरूप देते है, वह दहेज कहलाता है। यह प्रथा बहुत प्राचीन हैं। ‘श्रीरामचरितमानस’ के अनुसारजानकी जी को विदा करते समय महाराज जनक ने प्रचुर दहेज दिया था, जिसमें धन – सम्पत्ति, हाथी – घोड़े, खाद्य-पदार्थ आदि के साथ दास – दासियाँ भी थीं। यही दहेज का वास्तविक स्वरूप है, अर्थात् इसे स्वेच्छा से दिया जाना चाहिए।

कुछ वर्ष पहले तक यही स्थिति थी, किन्तु आज इसका स्वरूप अत्यधिक विकृत हो चुका है। आज वर पक्ष अपनी माँगों की लम्बी सूची कन्या-पक्ष के समाने रखाता है, जिसके पूरी न होने पर विवाह टूट जाता है। इस प्रकार यह लड़के का विवाह नही, उसकी नीलामी है, जो ऊँची से ऊँची बोली बोलने वाले के पक्ष में छूटती है

Dahej Pratha Par Nibandh
Dahej Pratha Par Nibandh

विवाह का अर्थ है- दो समान गुण, शील, कुल वाले वर-कन्या का गृहस्थ – जीवन की सफलता के लिए परस्पर सम्मान और विश्वासपूर्वक एक सूत्र में बँथना। इसी कारण पहले के लोग कुल – शील को सर्वाधिक महत्व देते थे। फलतः 98 प्रतिशत विवाह सफल होते थे, किन्तु आज तो स्थिति यहाँ तक विकृत हो चुकी है कि इच्छित दहेज पाकर भी कई पति अपनी पत्नी को प्रताड़ित करते हैं और उसे आत्महत्या तक के लिए विवश कर देते हैं या स्वयं मार डालते हैं।

दहेज – प्रथा की वकृति के कारण 

दहेज – प्रथा का जो विकृततम रूप आज दीख पड़ता है उसके कई कारण है, जिनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं

1. भौतिकवादी जीवन -दृष्टि 

अंग्रेजी शिक्षा के अन्धाधुन्ध प्रचार के फलस्वरूप लोगों का जीवन पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर घोर भौतिकवादी बन गया है, जिनमें अर्थ ( धन ) और काम ( सांसारिक सुख-भोग ) की ही प्रधानता हो गयी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने यहाँ अधिक – से – अधिक शान – शौकत की चीजें रखना चाहता है और इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेता हैं। यही दहेज – प्रथा की विकृति का सबसे प्रमुख कारण हैं।

2.वर – चयन का क्षेत्र सीमित 

हिन्दुओं में विवाह अपनी ही जाति में करने की प्रथा है और जाति के अन्तर्गत भी कुलीनता – अकुलीनता का विचार होता है। फलतः वर – चयन का क्षेत्र बहुत सीमित हो जाता है। अपनी कन्या के लिए अधिकाधिक योग्य वर प्राप्त करने की चाहत लड़के वालों को दहेज माँगने हेतु प्रेरित करती हैं।

3. विवाह की अनिवार्यता 

हिन्दू – समाज में कन्या का विवाह माता – पिता का पवित्रा दायित्व माना जाता है। यदि कन्या अधिक आयु तक अविवाहित रहे तो समाज माता – पिता की निन्दा करने लगता है। फलतः कन्या के हाथ पीले करने की चिन्ता वर – पक्ष द्वारा उनके शोषण के रूप में सामने आती है।

4.  स्पर्द्धा की भावना 

रिश्तेदार या पास – पड़ोस की कन्या की अपेक्षा अपनी कन्या को मालदार या उच्चपदस्थ वर के साथ ब्याहने के लिए लगी होड़ का परिणाम भी माता – पिता के घातक सिद्ध होता है। कई कन्या – पक्ष वाले वर – पक्ष वालों से अपनी कन्या के लिए अच्छे वस्त्राभूषण एवं बारात को तड़क – भड़क से लाने की माँग केवल अपनी झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से कर देते हैं, जिससे वर – पक्ष वाले अधिक दहेज माँग करते है.

5. रिश्वतखोरी 

अधिक धन कमाने की लालसा में विभिन्न पदों पर बैठे लोग अनुचित साधनों द्वारा पर्याप्त धन कमाते है। इसका विकृत स्वरूप दहेज के रूप में कम आय वाले परिवारों को प्रभावित करता है।

6. दहेज प्रथा प्रथा से हानियाँ 

दहेज – प्रथा की विकृति के कारण आज सारे समाज में एक भूचाल – सा आ गया है। इससे समाज को भीषण आघात पहुँच रहा हैं। कुछ प्रमुख हानियाँ निम्नलिखित हैं

1. नवयुवतियों का प्राण – नाश 

समाचार- पत्रों में प्रायः प्रतिदिन ही दहेज के कारण किसी – न – किसी नवविवाहिता को जीवित जला डालने अथवा मार डालने के एकाधिक लोमहर्षक एवं हदयविदारक समाचार निकलतें ही रहते हैं।

कभी – कभी वांछित दहेज न ला पाने के कारण वधू की पूर्ण उपेक्षा कर दी जाती है अथवा उसे मायके भेजकर एक प्रकार से अघोषित विवाह – विच्छेद ( तलाक) की स्थिति उत्पन्न कर दी जाती है, जिससे उसका जीवन दुर्वह बन जाता है। इस प्रकार इस कुप्रथा के कारण न जाने कितनी ललनाओं का जीवन नष्ट होता है, जो अत्यधिक शोचनीय है।

2. ऋणग्रस्तता 

दहेज जुटाने की विवशता के कारण कितने ही माता – पिताओँ की कमर आर्थिक दृष्टि से टूट जाती है, उनके रहने के मकान बिक जाते हैं या वे ऋणग्रस्त हो जाते हैं और इस प्रकार कितने ही सुखी परिवारों की सुख – शान्ति सदा के लिए नष्ट हो जाती है, जो अत्यधिक शोचनीय है।

3. भ्रष्टाचार को बढ़ावा 

इस प्रथा के कारण भ्रष्टाचार को भी प्रोत्साहन मिला है। कन्या के दहेज के लिए अधिक धन जुटाने की विवशता में पिता भ्रष्टाचार का आश्रय लेता है। कभी – कभी इसके कारण वह अपनी नौकरी से हाथ धोकर जेल भी जाता है या दर – दर का भिखारी बन जाता है।

4. अविवाहित रहने की विवशता 

दहेज रूपी दानव के कारण कितनी ही सुयोग्य लड़कियाँ अविवाहित जीवन बिताने को विवश हो जाती हैं। कुछ भावुक युवतियाँ स्वेच्छा से अविवाहित रह जाती है और कुछ विवाहित युवतियों के स्वेच्छा से अविवाहित रह जाती हैं और कुछ विवाहित युवतियों के साथ घटित होने वाली ऐसी घटनाओं से आतंकित होकर अविवाहित रह जाना पसन्द करती है।

5. अनैतिकता को प्रोत्साहन 

अधिक आयु तक कुँआरी रह जाने वाली युवतियाँ में से कुछ तो किसी युवक से अवैध सम्बन्ध स्थापित कर अनैतिक जीवन जीने को बाध्य होती हैं और कुछ यौवन – सुलभ वासना के वशीभूत होकर गलत लोगों के जाल में फँस जाती हैं, जिससे समाजमें अगणित  विकृतियाँ एवं विश्रृंखलताएँ उत्पन्न हो रही हैं।

6.अयोग्य बच्चों का जन्म 

जहाँ अनमोल विवाह हो रहे हैं, वहाँ योग्य सन्तान की अपेक्षा आकाश – कुसुम के समान हैं। सन्तान का उत्तम होना तभी सम्भव है, जब कि माता और पिता दोनों में पारस्परिक सामंजस्य हो। सारांश यह है कि दहेज – प्रथा के कारण समाज में अत्यधिक अव्यवस्था और अशान्ति उत्पन्न हो गयी है तथा गृहस्थ – जीवन इस प्रकार लांछित हो रहा है कि सर्वत्र त्राहि – त्राहि मची हुई है।

दहेज – प्रथा को समाप्त करने के उपाय 

दहेज स्वयं अपने में गर्हित वस्तु नहीं, यदि वह स्वेच्छता प्रदन्त हो, पर आज जो उसका विकृति रूप दीख पड़ता है, वह अत्यधिक निन्दनीय है। इसे मिटाने के लिए निम्नलिखित उपाय उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

1. जीवन के भौतिकवादी दृष्टिकोण में परिवर्तन 

जीवन का घोर भौतिकवादी दृष्टिकोण, जिसमें केवल अर्थ और काम ही प्रधान है, बदलना होगा। जीवन में अपरिग्रह और त्याग की भावना पैदा करनी होगी। इसके लिए हम बंगाल , महाराष्ट्र एवं दक्षिण का उदाहरण ले सकते हैं। ऐसी घटनाएँ इन प्रदेशों में प्रायः सुननें को नहीं मिलती, जब कि हिन्दी – प्रदेश में इनकी बाढ़ आयी हुई है। यह स्वाभिमान की भी माँग है कि कन्या पक्ष वालों के सामने हाथ न फैलाये जाएँ।

2. नारी सम्मान की भावना का पुनर्जागरण 

हमारे यहाँ प्राचीन काल में नारी को गृहलक्ष्मी माना जाता था और उसे बड़ा सम्मान दिया जाता था। प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया हैं यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्तें तन्त्र देवता। सचमुच सुगृहिणी गृहस्थ – जीवन की धुरी है, उसकी शोभा है तथा सम्मति देने वाली मित्र और एकान्त की सखी है। यह भावना समाज में जगनी चाहिए। और बना भारतीय संस्कृति को उज्जीवित किये यह सम्भव नहीं।

3. कन्या को स्वावलम्बी बनाना 

वर्तमान भौतिकवादी परिस्थिति में कन्या को उचित शिक्षा देकर आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी बनाना भी नितान्त प्रयोजनीय है। इससे यदि उसे योग्य वर नहीं मिल पाता तो वह अविवाहित रहकर भी स्वाभिमानपूर्वक अपना जीवनयापन कर सकती है। साथ ही लड़की को अपने मनोनुकूल वर चुनने की स्वतन्त्रता भी मिलनी चाहिए।

4. नवयुवकों को स्वलम्बी बनाना 

दहेज की माँग प्रायः युवक के माता – पिता करते हैं। युवक यदि आर्थिक दृष्टि से माँ – बाप पर निर्भर हो, तो उसे उनके सामने झुककर ही पड़ता है। इसलिए युवक को स्वावलम्बी बनने की प्रेरणा देकर उनमें आदर्शवाद जगाया जा सकता है, इससे वधू के मन में भी अपने पति के लिए सम्मान पैदा होगा।

 

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