देखिए Bharat Me Berojgari ki Samsya ( भारत में बेरोगारी की समस्या ) कितना बढ़ रहा है। मनुष्य की सारी गरिमा, जीवन का उत्साह, आत्म- विश्वास व आत्म – सम्मान उसकी आजीविका पर निर्भर करता है। परिवार के लिए वह बोझ होता है तथा समाज के लिए कलंक।
उसके समस्त गुण, अवगुण कहलाते हैं और उसकी समान्य भूलें अपराध घोषित की जाती है। इस प्रकार वर्तमान समय में भारत के सामने सबसे विकराल और विस्फोटक समस्या बेकारी की है, क्योकि पेट की ज्वाला से पीड़ित व्यक्ति कोई भी पाप कर सकता हैं – बुभुक्षितः किं न करोति पापम्। हमारा देश ऐसे ही युवकों की पीड़ा से सन्तप्त हैं।
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प्राचीन भारत की स्थिति Bharat Me Berojgari ki Samsya
प्राचीन भारत अनेक राज्यों में विभक्ति था। राजागण स्वेच्छाचारी न थे। वे मन्त्रिपरिषद के परामर्श से कार्य करते हुए प्रजा की सुख – समृद्धि के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते थे। राजदरबार से हजारों लोगों की आजीविका चलती थी, अनेक उद्योग – धन्धे फलते – फूलते थे।
प्राचीन भारत में यद्यपि बड़े – बड़े नगर भी थे, पर प्रधानता ग्रामों की ही थी। ग्रामों में कृषि योग्य भूमि का अभाव न था। सिंचाई की समुचित व्यवस्था थी। फलतः भूमि सच्चे अर्थों में शस्यश्यामला थी। इन ग्रामों में कृषि से सम्बद्ध अनेक हस्तशिल्पी काम करते थे, जैसे – बढ़ई, खरादी, लुहार, सिकलीगर, कुम्हार, कलयीगर आदि।
साथ ही प्रत्येक घर में कोई न कोई लघु उद्योग चलता था, जैसे कागज बनाना, चित्रकारी करना, रँगाई का काम करना, गुड़ – खाँड बनाना आदि।
Bharat Me Berojgari ki Samsya ( भारत में बेरोगारी की समस्या ) । उस समय भारत का निर्यात व्यापार बहुत बढ़ा – चढ़ा था। यहाँ से अधिकतर रेशम, मलमल आदि भिन्न – भिन्न प्रकार के वस्त्र और मणि, मोती, हीरे, मसाले, मोरपंख, हाथीदाँत आदि बड़ी मात्रा में विदेशों में भेजे जाते थे। दक्षिण भारत गर्म मसालों के लिए विश्वभर में विख्यात था। Bharat Me Berojgari ki Samsya
यहाँ काँच का काम भी बहुत उत्तम होता था। हाथीदाँत और शंख की अत्युत्म चूड़ियाँ बनती थी, जिन पर बारीक कारीगरी होती थी। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्राचीन काल की असाधारण समृद्धि का मुख्य आधार कृषि ही नही, अपितु अगणित लघु उद्योग – धन्धे एवं निर्यात – व्यापार था।
इन उद्योग – धन्धों का संचालन बड़े – बड़े पूँजीपतियों के हाथों में न होकर गण – संस्थाओं ( व्यापार संघों) द्वारा होता था। यही कारण था कि प्राचीन भारत में बेकारी का नाम भी कोई न जानता था। प्राचीन भारत के इस आर्थिक सर्वेक्षण से तीन निष्कर्ष निकलते हैं ।
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1.देश की प्राचीन भारत के किसी – न – किसी उद्योग – धन्धे, हस्तशिल्प या वाणिज्य व्यवसाय में लगी थी।
2. भारत में निम्नतम स्तर तक स्वायत्तशासी या लोकतान्त्रिक संस्थाओं का जाल बिछा था।
3. सारे देश में एक प्रकार का आर्थिक साम्यवाद विद्यमान था अर्थात धन कुछ ही हाथों या स्थानों में केन्द्रित न होकर न्यूनाधिक मात्रा में सारे देश में फैला हुआ था।
वर्तमान स्थिति
जब सन् 1947 ई0 में देश लम्बी पराधीनता के बाद स्वतन्त्र हुआ तो आशा हुई कि प्राचीन भारतीय अर्थतन्त्र की सुदृढ़ता की आधारभूत ग्राम – पंचायतों एवं लघु उद्योग – धन्धों को उज्जीवित कर देश को पुनः समृद्धि की ओर बढ़ाने हेतु योग्य दिशा मिलेगी, पर दुर्भाग्यवश देश का शासनतन्त्र अंग्रेजों के मानस – पुत्रों के हाथों में चला गया, जो अंग्रेजों से भी ज्यादा अंग्रेजियत में रँगे हुए थे ।
परिणाम यह हुआ कि देश में बेरोजगारी बढ़ती ही गयी। इस समय भारत की जनसंख्या 139 करोड़ से भी ऊपर है जिसमें 10 % अर्थात् 13.9 करोड़ से भी अधिक लोग पूर्णतया बेरोजगार हैं।
बेरोजगार से अभिप्राय
मजदूरी की दर पर कोई कार्य न मिलता हो। बेकारी को हम तीन वर्गों में बाँट सकते हैं – अनैच्छिक बेकारी, गुप्त व आंशिक बेकारी तथा संघर्षात्मक बेकारी । अनैच्छिक बोरोजगारी से अभिप्राय यह है कि व्यक्ति प्रचलित वास्तविक मजदूरी पर कार्य करने को तैयार है, परन्तु उसे रोजगार प्राप्त नहीं होता।
गुप्त व आंशिक बोरोजगारी से आशय किसी भी व्यवसाय में आवश्यकता से अधिक व्यक्तियों के कार्य पर लगने से है। संघर्षात्मक बेरोजगारी ेस अभिप्राय यह है कि बोरोजगारी श्रम की माँग में सामयिक परिवर्तनों के कारण होती है और अधिक समय तक नहीं रहती। साधारणतया किसी भी अधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र में तीनों प्रकार की बोरोजगारी पायी जाती है।
भारत में बेरोगारों का स्वरूप (भारत में बेरोगारी की समस्या )
जनसंख्या के दृष्टिकोण से भारत का स्थान विश्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में चीन के पश्चात् है। यद्यपि वहाँ पर अनैच्छिक बोरोजगारी पायी जाती है, तथापि भारत में बोरोजगारीका स्वरूप अन्य देशों की अपेक्षा कुछ भिन्न है। यहाँ पर संघर्षात्मक बेरोजगारी भीषण रूप से फैली हुई है। प्रायः नगरों में अनैच्छिक बोरोजगारी और ग्रामों में गुप्त बोरोजगारी का स्वरुप देखने में आता है।
शहरों में बेरोजगारी के दो रूप देखने में आते हैं – औद्योगिक श्रमिकों की बेकारी तथा दूसरे, शिक्षित वर्ग में बेकारी । भारत एक कृषि – प्रधान देश है और यहाँ की लगभग 75 % जनता गाँव में निवास करती है जिसका मुख्य व्यवसाय कृषि है। कृषि में मौसमी अथवा सामयिक रोजगार प्राप्त होता है, अतः कृषि व्यवसाय में संलग्न जनसंख्या का अधिकांश भाग चार से छः मास तक बेकार रहता है। इस प्रकार भारतीय ग्रामों में संघर्षोत्मक बेरोजगारी अपने भीषण रूप में विद्यामान हैं।
बेरोजगारी के कारण
हमारे देश में बेरोजगारी के अनेक कारण हैं। इनमें से कुछ प्रमुख कारणों का उल्लेख निम्नलिखित है
1. जनसंख्या
बोरोजगारी का प्रमुख कारण है- जनसख्या में तीव्रगति से वृद्धि। विगत कुछ दशकों में भारत में जनसंख्या का विस्फोट हुआ हैं। हमारे देश की जनसंख्या में प्रतिवर्ष लगभग 2.5% की वृद्धि हो जाती है, जबकि इस दर से बढ़ रहे व्यक्तियों के लिए हमारे देश में रोजगार की व्यवस्था नहीं हैं।
2. शिक्षा – प्रणाली
भारतीय शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक है। इसमें पुस्तकीय ज्ञान पर ही विशेष ध्यान दिया जाता हैं, फलतः यहाँ के स्कूल – कॉलेजों से निकलने वाले छात्र निजी उद्योग – धन्धे स्थापित करने योग्य नहीं बन पाते ।
3. कुटीर उद्योगों की उपेक्षा
ब्रिटिश सरकार की कुटीर उद्योग विरोधी नीति के कारण देश में कुटीर उद्योग- धन्धों का पतन हो गया,फलस्वरूप अनेक कारीगर बेकार हो गये। स्वतन्त्रता – प्राप्ति के पश्चात् भी कुटीर उद्योगों के विकास की ओर पर्याप्त ध्यान नही दिया गया, अतः बेरोजगारी में निरन्तर वृद्धि होती गयी।
4. औद्योगीकरण की मन्द प्रक्रिया
पंचवर्षीय योजनाओं में देश के औद्योगिक विकास के लिए जो कदम उठाये गये उनसे समुचित रूप से देश का औद्योगीकरण नी किया जा सका है। फलतःबेकार व्यक्तियों के लिए रोजगार के साधन नहीं जुटाये जा सके हैं।
5. कृषि का पिछड़ापन
भारत की लगभग दे – तिहाई जनता कृषि पर निर्भर है। कृषि की पिछड़ी हुई दशा में होने के कारण कृषि बेरोजगार की समस्य़ा व्यापक हो गयी है।
6. कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी
हमारे देश में कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों की कमी है।अतः उद्योगों के सफल संचालन के लिए विदेशों से प्रशिक्षित क्रमचारी बुलाने पड़ते हैं। इस कारण देश के कुशल एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों के बेकार हो जाने की भी समस्या हो जाती हैं।
इनके अतिरिक्त मानसून की अनियमितता, भारी संख्या में शरणार्थियों का आगमन, मशीनीकरण के फलस्वरुप होने वाली श्रमिकों की छटनी, श्रम की माँग एवं पूर्ति में असन्तुलन, आर्थिक संसाधनों की कमी आदि से भी बेरोजगारी में वृद्धि हुई है। देश को बेरोजगारी से उबारने के लिए इनका समुचित समाधान नितान्त आवश्यक हैं।
समस्या का समाधान – भारत में बेरोगारी की समस्या
1. सबसे पहली आवश्यकता है हस्तोद्योगों को बढ़ावा देने की। इससे स्थानीय प्रतिभा को उभरने का सुअवसर मिलेगा। भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए लघु उद्योग – धन्धे ही ठीक है, जिनमें अधिक – से – अधिक लोगों को काम मिल सके। मशीनीकरण उन्ही देशों के लिए उपयु्क्त होता है, जहाँ कम जनसंख्या के कारण कम हाथों से अधिक काम लेना हो।
2. दूसरी आवश्यकता है मातृभाषाओँ के माध्यम से शिक्षा देने की, जिससे विद्यार्थी शीघ्र ही शिक्षित होकर अपनी प्रतिभा का उपयोग कर सके। साथ ही आज सकूल – कॉलेजों में दी जाने वाली अव्यावहारिक शिक्षा के स्थान पर शिल्प – कला, उद्योग – धन्धों आदि से सम्बद्ध शिक्षा दी जाने चाहिए, जिससे कि पढ़ाई समा्प्त कर विद्यार्थी तत्काल रोजी – रोटी कमाने योग्य हो जाए।
3. बड़ी – बड़ी मिले और फैक्ट्रियाँ, सैनिक शस्त्रास्त्र तथा ऐसी ही दूसरी बड़ी चीजें बनाने तक सीमित कर दी जाएँ। अधिकांश जीवनोपयोगी वस्तुओं का उत्पादन घरेलू उद्योगों से ही हो।
4. पश्चिमी शिक्षा ने शिक्षितों में हाथ के काम को नीचा समझने की जो मनोवृत्ति पैदा कर दी है, उसे श्रम के गौरव की भावना पैदा करके दूर किया जाना चाहिए।
5. लघु उद्योग – धन्धों के विकास से शिक्षितों में नौकरियों के पीछे भागने की प्रवृत्ति घटेगी, क्योकि नौकरियों में देश की जनता का एक बहुत सीमित भाग ही ख सकता है। लोगों को प्रोत्साहन देकर हस्त – उद्योगों एवं वाणिज्य – व्यवसाय की ओर उन्मुख किया जाना चाहिए।
ऐसे लघु – उद्योगों में रेशम के कीड़े पालना, मधुमक्खी – पालन, सूत कातना, कपड़ा बुनना, बागवानी, साबुन बनाना, खिलौने, चटाइयाँ, कागज, तेल – इत्र आदि न जाने कितनी वस्तुओं का निर्माण सम्भव है। िसके लिए प्रत्येक जिले में जो सरकारी लघु – उद्योग कार्यालय हैं, वे अधिक प्रभावी ढंग से काम करें। वे इच्छुक लोगों को सही उद्योग चुनने की सलाह दे, उन्हें ऋण उपलब्ध कराएँ तथा आवश्यकताऩुसार कुछ तकनीकी शिक्षा दिलवाने की भी व्यवस्था करें।
इसके साथ ही इनके उत्पादों की बिक्री की भी व्यवस्था कराएँ। यह सर्वाधिक आवश्यक है, क्योकि इसके बिना शेष सारी व्यवस्था बेकार साबित होगी। सरकार के लिए ऐसी व्यवस्था करना कठिन नहीं है, क्योकि वह स्थान – स्थान पर बड़ी – बड़ी प्रदर्शनियाँ आयोजित करके तैयार माल बिकवा सकती है, जब कि व्यक्ति के लिए, विशेषतः नये व्यक्ति के लिए, यह सम्भव नही।
6. इसके साथ ही देश की तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या पर भी रोक लगाना अत्यावश्यक हो गया है।
उपसंहार
सारांश यह है कि देश के स्वायत्तशासी ढ़ाँचे और लघु उद्योग – धन्धों के प्रोत्साहन से ही बेरोगारी की समस्या का स्थायी समाधान सम्भव है। हमारी सरकार भी बेरोजगारी की समस्या के उन्मूलन के लिए जागरूक है और उसके द्वारा इस दिशा में हमत्वपूर्ण कदम भी उठाये गये है। परिवार नियोजन बैकों का राष्ट्रीयकरण, एक स्थान से दूसरे स्थान पर कच्चा माल ले जाने की सुविधा, कृषि – भूमि की चकबन्दी, नये – नये उद्योगों की स्थापना, प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना आदि अनेकानेक ऐसे कार्य है, जो बेरोजगारी को दूर करने में एक सीमा तक सहायक सिद्ध हो रहे हैं।