karypalika Nyapalika Vidhanmandal ( कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधानमण्डल )

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 राज्यपालिका

केन्द्र के राष्ट्रपति की तरह उत्तर प्रदेश में भी एक राज्यध्यक्ष की व्यवस्था है जिसे राज्यपाल ( गवर्नर ) के नाम से जाना जाता है।

  • राज्यपाल राज्य सरकार शब्द का बोध कराता है और राज्य की कार्यपालिका शक्ति इसी में निहित होती है।
  • राज्यपाल राज्य का संवैधानिक प्रमुख और विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते समय वास्तविक प्रमुख होता है।
NyayPalika, NagarPalika, VidhanMandl
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  • राज्यपाल राज्य के विश्विविद्यालयों का कुलाधिपति और राज्य का प्रथम नागरिक होता है।
  • राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्ष के लिए राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह उसी के इच्छापर्यन्त पद धारण करता है। राष्ट्रपति जब चाहे उसे पद से हटा सकता है।
  • राज्य के महाधिक्ता, लोकायुक्त आदि पदों पर नियुक्तियाँ राज्यपाल द्वारा ही की जाताी है।मंत्रीपरिषद – अनुच्छेद 164 के अनुसार राज्यपाल सर्वप्रथम मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता और उसकी सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है एवं अनुसूची तीन के अनुरूप पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है।
  • मंत्री पद पर नियुक्त होने के लिए दोनों सदनों में से किसी एक सदन का सदस्य होना आवश्वक है, यदि ऐसा नहीं है तो 6 माह के भीतर उसे किसी एक सदन की सदस्यता ग्रहण करना अनिवार्य हैं।
  • राज्य मंत्रीपरिषद ही राज्य में वास्तविक कार्यपालिका का कार्य करती है। यही विधानमण्डल की पथ – प्रदर्शक तथा शासन की धुरी है।

मुख्यमंत्री 

राज्य कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान मुख्यमंत्री होता है। वह राज्य शासन का कप्तान है। उसके कार्यों एवं दायित्वों की दृष्टि से उसे प्रधानमंत्री का लघुरूप कहा जा सकता हैं।

सचिवालय 

राज्य की वास्तविक कार्यपालिका ( मंत्रिपरिषद ) के सदस्य जन प्रतिनिधि होते हैं वे प्रशासन की गुढ़ताओं से अवगत हो, यह आवश्यक नही होता । इसलिए आवश्यक प्रशासनिक सहायता एवं परामर्श के लिए मुख्य सचिव के नेतृत्व में एक विशुद्ध प्रशासनिक निकाय का गठन किया गया है जिसे राज्य सचिवालय कहते हैं। 

  • राज्य सचिवालय के प्रशासनिक अध्यक्ष को मुख्य सचिव कहा जाता है।

मुख्य सचिव 

राज्य प्रशासन में मुख्य सचिव का पद प्रशासनिक पद सोपान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। वह राज्य  कैडर में IAS  का वरिष्ठतम अधिकारी होता है और राज्य प्रशासन की धुरी है।

कार्यकारी विभाग ( निदेशालय ) 

राज्य प्रशासन में मंत्री – मंत्रीपरिषद ( राजनीतिक  प्रमुख), सचिव- सचिवालय ( प्रशासनिक प्रमुख ) के बाद तीसरा अवयव कार्यकारी विभाग ( निदेशालय) होता है। ऊपर के दोनों अवयवों का संबंध नीति निर्माण से है जबकि कार्यकारी विभाग ( निदेशालय ) क्रियान्वयन के लिए प्राथमिक रूप से जिम्मेदार संस्था है।

मण्डल, जिला, तहसील एवं ब्लाक प्रशासन 

राज्य के विभिन्न विभागों की कार्यत्मक इकाइयाँ नीचे तक फैली होती है और सबके अपने विभाजन स्तर होते हैं।

महाधिवक्ता 

राज्य में महाधिवक्ता की नियुक्ति की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा ( अवधि नियत नही) की जाती है और उसी के प्रसाद पर्यन्त पद धारण करता है। इस पद नियुक्त होने के लिए आवश्यक है कि, वह भारत का नागरिक हो, 10 वर्ष से अधिक समय से न्यायिक कार्य से जुड़ा हो या कम से कम 10 वर्ष से उच्च न्यायलय में अधिवक्ता का कार्य किया हो।

  • वह विधि विषयों पर राज्यपाल को सलाह देता है एवं राज्यपाल द्वारा सौपे गये विधि सम्बन्धी कार्यो का सम्पादन करता है। वह सदनों की बैठकों में भाग ले सकता, बोल सकता, लेकिन मतदान नहीं कर सकता हैं।

न्यायपालिका 

उत्तर प्रदेश में न्याय प्रशासन के शीर्ष पर एक उच्च न्यायलय है जिसके नियंत्रण में अनेक अधीनस्थ न्यायलय हैं यथा- जिला न्यायालय, पारिवारिक न्यायालय, उत्तर प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, विधिक सेवा समितियाँ आदि।

उच्च  न्यायालय 

उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय का मुख्यपीठ लखनऊ में है।

  • उच्च न्यायलय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
  • इल्लाहाबाद उच्च न्यायालय की स्थापना 1866 ई0 में हुई थी। वर्तमान में इलाहाबद उच्च न्यायालय में न्यायधीशों की स्वीकृत संख्या 160 हैं।
  • उच्च न्यायलय के न्यायधीशों की नियुक्ति 62 वर्ष की आयु तक ेक लिए की जाती है। न्यायधीश नियुक्त होने के लिए आवश्यक है कि वह – भारत का नागरिक हो, कम से कम 10 वर्ष तक किसी न्यायिक पद पर कार्य किया हो या इतने वर्ष से उच्च न्यायलय में अधिवक्ता रहा हो । नियुक्ति के बाद राज्यपाल द्वारा शपथ दिलाया जाता है।

जिला न्यायालय 

उत्तर प्रदेश को 75 न्यायिक जिलों में बांटा गया है और जिसमें प्रत्येक जिले का नियंत्रण एक जिला न्यायाधीश के अधीन होता है। जिला जज के अतिरिक्त जिले स्तर का एक और न्यायाधीश जिला सेशन जज होता है। इन दोनों जजों की नियुक्ति उच्च न्यायलय के परामर्श से राज्यपाल द्वारा की जाती है।

  • जिला एवं सेशन जज के नीचे के अधीनस्थ न्यायिक सेवा को दो भागों – उत्तर प्रदेश सिविल न्यायिक सेवा में विभक्त किया गया है। इनकी नियुक्ति राज्यपाल द्वारा उच्च न्यायालय एवं लोक सेा आयोग के परामर्श से की जाती है। सामान्यतः ऐसी नियुक्तियाँ प्रतियोगी परीक्षा के आधार पर की जाती है।

राजस्व परिषद 

राजस्व सम्बंधी मामलों के अपील एवं सुनवायी के लिए प्रदेश में सबसे शीर्ष न्यायलय ‘राजस्व परिषद’ है, जो कि प्रयागराज में है। पारिवारिक न्यायालय -पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1985  के अन्तर्गत प्रदेश के समस्त मंडलीय मुख्यालयों में एक – एक पारिवारिक न्यायालयों की स्थापना की गई है। परन्तु वादों की संख्या के आधार पर लखनऊ एवं कानपुर नगर में दो – दो पारिवारिक न्यायालय स्थापित किए गए हैं। 

लोक अदालत 

संविधान के 42वें संशोधन द्वारा नीति निदेशक तत्वों में एक नया अनुच्छेद 39 क जोड़कर समाज के कमजोर वर्गों के लिए निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था की गयी है। इसी धारा के तहत् प्रदेश सरकार द्वारा 1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम – 1987 पारित किया गया। इस अधिनियम के परिपेक्ष्य में राज्य स्तर पर ‘उत्तर प्रदेश राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, जिला स्तर पर जिला विधिक सेवा प्राधिकरण और तहसील स्तर पर तहसील विधिक सेवा प्राधिकरणों की स्थापना की गयी है। ये प्राधिकरण लोक अदालतों के माध्यम से न्यायालय में एवं न्यायालय से बाहर लम्बित समस्त प्रकार के विवादों को समाप्त करने, के निर्बल वर्गों को निःशुल्क विधिक सेवा उपलब्ध कराए जाने की दिशा में सतत् प्रयासरत हैं।

विधानमण्डल 

राज्य में विधि निर्माण के लिए विधान मण्डल की व्यवस्था की गयी है जिसके तीन अंग हैं । राज्यपाल, विधान सभा और विधान परिषद। 

राज्यपाल 

विधानमण्डल में सबसे ऊपर राज्यपाल का स्थान हैं। उसके हस्ताक्षर के बिना कोई कानून प्रवर्तन में नहीं आ सकता । राज्यपाल सदनों के अधिवेशन आहूत करता, दोनों सदनों में अभिभाषण करता, निम्न सदन में बजट रखवाता, साक्ष्यों की निरहर्ताओं का विनिश्चय करता, विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए आरक्षित रता तथा विशेष परिस्थितियों में जब सदन सत्र में न हो तो अध्यादेश जारी करता है। ये सभी राज्यपाल के विधायी कार्य हैं।

विधान परिषद 

उच्च सदन के रूप में उत्तर प्रदेश राज्य विधान परिषद का गठन 1937 में किया गया। वर्तमान में इसमें कुल 100 सदस्य हैं।

  • इस परिषद के सदस्यों का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता है जो इस प्रकार हैं कुल सदस्यों का 1/3 विधान सभा के सदस्यों द्वारा, 1/3 नगर निकायों, जिला वार्डो एवं स्थानीय प्राधिकारियों द्वारा, 1/12 विश्वविद्यालयों के 3 वर्षों से अधिक पुराने स्नातकों द्वारा, 1/12 माध्यमिक से ऊपर के शिक्षण संस्थाओं के अध्यापकों द्वारा तथा शेष 1/6 भाग सदस्यों को राज्यपाल द्वारा राज्य के विशिष्ट व्यक्तियों में से नाम निर्देशित किया जाता है।
  • यह एक स्थायी सदन है, जिसके 1/3 सदस्य प्रति दो वर्ष के बाद सेवा निवृत्त होते रहते हैं और प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है।
  • इस सदन का सदस्य होने के लिए आवश्यक है कि वह भारत का नागरिक हो, 30 वर्ष की आयु पूरा कर चुका हो और निर्धारित प्रारूप के अनुसार शपथ करता हो।
  • विधान परिषद के सदस्य अपने ही सदस्यों में से एक सभापति और एक उप – सभापति का चुनाव करते हैं।

विधान सभा 

इसे निम्न सदन या सामान्य सभा कहा जाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 170 के अनुसार विधान सभाओं में 60 से कम और 500 से अधिक सदस्य नही हो सकते । वर्तमान में अपने प्रदेश की विधान सभा में सदस्यों की कुल संख्या 404 ( 403 निर्वाचित + 1 एंग्लों इण्डियन मनोनीत ) हैं। ये सदस्य राज्य विधान सभा क्षेत्रों के वयस्क ( 18 वर्ष या ऊपर ) मतों से प्रत्यक्ष रूप से चुने  जाते हैं.

  • विधान सभा का सदस्य चुने जाने के लिए आवश्यक है कि वह भारत का नागरिक हो, 25 वर्ष से कम आयु का न हो तथा निर्धारित प्रारूप के अनुसार शपथ ग्रहण करता हो। इस अर्हताओं के अतिरिक्त उसमें निम्न बाते नहीं होनी चाहिए । दिवालिया न हो, वकृत्त चित्त न हो, कोई लाभ का पद धारण न करता हो एवं भारत की नागरिकता न खो दिया हो।
  • सदस्य चुने जाने के बाद और पद ग्रहण करने से पहले प्रत्येक सदस्य को राज्यपाल या उसका प्रतिनिधि तीसरी अनुसूची के अनुसार शपथ दिलाता है।
  • राज्य विधान सभा में एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होने हैं जिन्हें नयी विधान सभा के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता हैं।

समितियाँ 

सदनों के पास इतना समय और सुविधाएं नही होती कि वह प्रत्येक मामले पर गहनता से विचार कर सके। अतः सदनों में विभिन्न प्रयोजनों के लिेए समितियाँ बनाने की व्यवस्था है। कुछ समितियाँ दोनों सदनों की अलग – अलग तो कुछ समितियाँ दोनों सदनों की अलग – अलग तो कुछ संयुक्त होती हैं।

नेता विरोधी दल 

राज्य विधान सभा में द्वितीय सबसे बड़ी पार्टी, जो कि सरकार में सम्मिलित न हो, के नेता को विरोधी दल नेता रूप में मान्यता देते हुए राज्य के कैबिनेट स्तर के मंत्री के समान सुविधाएं प्रदान की गयी है।

सचिवालय 

राज्य विधान मण्डल के दोनों सदनों के पृथक् – पृथक् अपने सचिवालय और सचिव होते है और उनकी कार्यप्रणाली राज्य सरकार के अन्य सचिवालय और सचिवों से पूर्णतः स्वतन्त्र होती है।

 

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